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रामचरित मानस



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* राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना॥

तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना॥3॥


भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के पेट में मैंने बहुत से जगत्‌ देखे, जो देखते ही बनते थे, वर्णन नहीं किए जा सकते। वहाँ फिर मैंने सुजान माया के स्वामी कृपालु भगवान्‌ श्री राम को देखा॥3॥


* करउँ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी॥

उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा॥4॥


भावार्थ:-मैं बार-बार विचार करता था। मेरी बुद्धि मोह रूपी कीचड़ से व्याप्त थी। यह सब मैंने दो ही घड़ी में देखा। मन में विशेष मोह होने से मैं थक गया॥4॥


दोहा :

* देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर।

बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर॥82 क॥


भावार्थ:-मुझे व्याकुल देखकर तब कृपालु श्री रघुवीर हँस दिए। हे धीर बुद्धि गरुड़जी! सुनिए, उनके हँसते ही मैं मुँह से बाहर आ गया॥82 (क)॥

* सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम।

कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम॥82 ख॥


भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी मेरे साथ फिर वही लड़कपन करने लगे। मैं करोड़ों (असंख्य) प्रकार से मन को समझाता था, पर वह शांति नहीं पाता था॥82 (ख)॥


चौपाई :

* देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई॥

धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता॥1॥


भावार्थ:-यह (बाल) चरित्र देखकर और पेट के अंदर (देखी हुई) उस प्रभुता का स्मरण कर मैं शरीर की सुध भूल गया और हे आर्तजनों के रक्षक! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए, पुकारता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। मुख से बात नहीं निकलती थी!॥1॥


* प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी॥

कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ॥2॥


भावार्थ:-तदनन्तर प्रभु ने मुझे प्रेमविह्वल देखकर अपनी माया की प्रभुता (प्रभाव) को रोक लिया। प्रभु ने अपना करकमल मेरे सिर पर रखा। दीनदयालु ने मेरा संपूर्ण दुःख हर लिया॥2॥


* कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा॥

प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी॥3॥


भावार्थ:-सेवकों को सुख देने वाले, कृपा के समूह (कृपामय) श्री रामजी ने मुझे मोह से सर्वथा रहित कर दिया। उनकी पहले वाली प्रभुता को विचार-विचारकर (याद कर-करके) मेरे मन में बड़ा भारी हर्ष हुआ॥3॥


* भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी॥

सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी॥4॥


भावार्थ:-प्रभु की भक्तवत्सलता देखकर मेरे हृदय में बहुत ही प्रेम उत्पन्न हुआ। फिर मैंने (आनंद से) नेत्रों में जल भरकर, पुलकित होकर और हाथ जोड़कर बहुत प्रकार से विनती की॥4॥


दोहा :

* सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास।

बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास॥83 क॥


भावार्थ:-मेरी प्रेमयुक्त वाणी सुनकर और अपने दास को दीन देखकर रमानिवास श्री रामजी सुखदायक, गंभीर और कोमल वचन बोले-॥83 (क)॥



* काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।

अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि॥83 ख॥


भावार्थ:-हे काकभुशुण्डि! तू मुझे अत्यंत प्रसन्न जानकर वर माँग। अणिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ, दूसरी ऋद्धियाँ तथा संपूर्ण सुखों की खान मोक्ष,॥83 (ख)॥


चौपाई :

*ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना॥

आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं॥1॥


भावार्थ:-ज्ञान, विवेक, वैराग्य, विज्ञान, (तत्त्वज्ञान) और वे अनेकों गुण जो जगत्‌ में मुनियों के लिए भी दुर्लभ हैं, ये सब मैं आज तुझे दूँगा, इसमें संदेह नहीं। जो तेरे मन भावे, सो माँग ले॥1॥


* सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेउँ॥

प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही॥2॥


भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर मैं बहुत ही प्रेम में भर गया। तब मन में अनुमान करने लगा कि प्रभु ने सब सुखों के देने की बात कही, यह तो सत्य है, पर अपनी भक्ति देने की बात नहीं कही॥2॥


* भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे॥

भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा॥3॥


भावार्थ:-भक्ति से रहित सब गुण और सब सुख वैसे ही (फीके) हैं जैसे नमक के बिना बहुत प्रकार के भोजन के पदार्थ। भजन से रहित सुख किस काम के? हे पक्षीराज! ऐसा विचार कर मैं बोला-॥3॥

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